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द्व॒याँ अ॑ग्ने र॒थिनो॑ विंश॒तिं गा व॒धूम॑न्तो म॒घवा॒ मह्यं॑ स॒म्राट्। अ॒भ्या॒व॒र्ती चा॑यमा॒नो द॑दाति दू॒णाशे॒यं दक्षि॑णा पार्थ॒वाना॑म् ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dvayām̐ agne rathino viṁśatiṁ gā vadhūmato maghavā mahyaṁ samrāṭ | abhyāvartī cāyamāno dadāti dūṇāśeyaṁ dakṣiṇā pārthavānām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

द्व॒यान्। अ॒ग्ने॒। र॒थिनः॑। विं॒श॒तिम्। गाः। व॒धूऽम॑न्तः। म॒घऽवा॑। मह्य॑म्। स॒म्ऽराट्। अ॒भि॒ऽआ॒व॒र्ती। चा॒य॒मा॒नः। द॒दा॒ति॒। दुः॒ऽनाशा॑। इ॒यम्। दक्षि॑णा। पा॒र्थ॒वाना॑म् ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:27» मन्त्र:8 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:24» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान ! जो (वधूमन्तः) अच्छी श्रेष्ठ वधुयें और (रथिनः) श्रेष्ठ रथोंवाले होवें जिन (द्वयान्) प्रजा और सेना के जनों को (मघवा) प्रशंसित धनवाले (सम्राट्) उत्तम प्रकार से शोभित और (अभ्यावर्ती) जीतने को चारों ओर से वर्त्तमान (चायमानः) आदर किये गये आप (विंशतिम्) बीस (गाः) गौओं को जैसे वैसे (ददाति) देते वह आप (मह्यम्) मेरे लिये जो (पार्थवानाम्) राजाओं की (इयम्) यह (दूणाशा) दुर्लभ नाश जिसका ऐसी (दक्षिणा) दक्षिणा आपसे दी गई है, उससे उनको प्रसन्न करिये ॥८॥
भावार्थभाषाः - जो राजा कुलीन, विद्या और व्यवहार में निपुण, धार्मिक राजा और प्रजाजनों को भय रहित करता है, वह अतुल प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है ॥८॥ इस सूक्त में इन्द्र, ईश्वर, राजा और प्रजा के गुणवर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह सत्ताईसवाँ सूक्त और चौबीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजा किं कुर्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! ये वधूमन्तो रथिनस्स्युर्यान् द्वयान् मघवा सम्राडभ्यावर्त्ती चायमानो भवान् विंशतिं गा ददाति स त्वं मह्यं या पार्थवानामियं दूणाशा दक्षिणा भवता दत्तास्ति तया तान् प्रीणीहि ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (द्वयान्) प्रजासेनाजनान् (अग्ने) (रथिनः) प्रशस्ता रथा येषां सन्ति ते (विंशतिम्) (गाः) धेनूरिव (वधूमन्तः) प्रशस्ता वध्वो विद्यन्ते येषान्ते (मघवा) प्रशस्तधनवान् (मह्यम्) (सम्राट्) यः सम्यग्राजते (अभ्यावर्ती) यो विजेतुमभ्यावर्त्तते सः (चायमानः) पूज्यमानः (ददाति) (दूणाशा) दुर्लभो नाशो यस्याः सा (इयम्) (दक्षिणा) (पार्थवानाम्) पृथौ विस्तीर्णायां विद्यायां भवानां राज्ञाम् ॥८॥
भावार्थभाषाः - यो राजा कुलीनान् विद्याव्यवहारविचक्षणान् धार्मिकान् राजप्रजाजनानभयान् करोति सोऽतुलां प्रतिष्ठां प्राप्नोतीति ॥८॥ अत्रेन्द्रेश्वराजप्रजागुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति सप्तविंशतितमं सूक्तं चतुर्विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो राजा कुलीन, विद्याव्यवहारात कुशल, धार्मिकांना व राज प्रजाजनांना भयरहित करतो त्याला अत्यंत प्रतिष्ठा प्राप्त होते. ॥ ८ ॥